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मोम की गुड़िया / सुधा ओम ढींगरा

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शीशे में लिपटी
मोम की गुड़िया
ब्याह कर जब आई,
बहुत से लोगों की
आँखें भरमाईं,
कुछ की आँखें
अलोचनायों ,
प्रत्यालोचनायों
के लिए उठीं.

कोमल ,
शीशे सी नाज़ुक
पारदर्शी
संवेदनाओं से
पिघलती
जवानी
मुस्करा देती
जब कोई कहता-
यह नारीत्व का बोझ
कैसे सम्भाल पाएगी?

सूरज की तपिश,
चाँदनी की ठंडक,
सामाजिक बंधन,
मर्यादायों की बेड़ियाँ,
जीवन की चुनौतियाँ,
पारिवारिक जिम्मेदारियाँ
कैसे उठा पाएगी?

वह बस हँस देती..
ममत्व ने जब
नारी बनाया,
सूर्य ने तपाया,
मर्यादायों ने तोड़ा,
चुनौतियों ने रुलाया,
जिम्मेदारियों ने पीस डाला...

पुरुष ने
भावनाओं के कंकरों
से बींध डाला--
शीशे में लिपटी
मोम की गुड़िया
न पिघली,
न टूटी,
न बिखरी,
आँचल में बच्चों को समेटे,
मल्लिका सी नाज़ुक वह
वृक्ष रुपी पुरुष को
अपने बदन से लिपटाये
मज़बूत खड़ी
प्रश्न सूचक आँखों से
तकती है...
वह कमज़ोर कहाँ है...?
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