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Kavita Kosh से
उसके पास एक टुटही टीन पेटी थी
जिसमें था हमारे अचरज का जगत
वह लिानागा बिलानागा तीन दिन हमारे घर होता
काम हो न हो उसकी आमद अचूक थी
हम निहन्नी को हाथ में लेते और
घुमाते अंगुलियों के बीच
उसके नीचे की तरफ तरफ़ एक उठावदार कोना थाभीतर की तरफ तरफ़ घूमा हुआजिससे साफ साफ़ होता था कान का मैल
कक्का बड़े जतन से उपयोग में लाते
एक गुदगुदी जो बसी है अब तक कानों में
वाह क्या खूब
तब नियम सख्त सख़्त थाया कहें रिवाज रिवाज़ न था
लेकिन स्त्रियां चोरी-छिपे
नाखून कटाने की जुगत में होतीं