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12:07, 5 सितम्बर 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सर्वत एम जमाल
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<poem>
हथेली देखता हूँ! पहेली देखता हूँ!!
सभी ने पर निकले
मगर हर पांव छाले
जुबां खुलती नहीं है
अधर पर बंद ताले
कुहासा बढ़ रहा है
अँधेरा चढ़ रहा है
यहाँ सूरज किरन भी, अकेली देखता हूँ !
हथेली ----------------------------! !
लगा है फिर अडंगा
हुआ इन्सान नंगा
नगर देहात बस्ती
सवेरे शाम दंगा
लगे फुफकारने सब
नजर के सामने अब
निराला खंडहर है, हवेली देखता हूँ !
हथेली ------------------------!!
घुटन स्वीकार है क्या
हवा बीमार है क्या
सुगन्धित वाटिका से
किसी को प्यार है क्या
नवेले आचरण से
निराले व्याकरण से
सफेदी भूल बैठी, चमेली देखता हूँ !
हथेली -------------------------!!
</poem>