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बार-बार / मुकेश मानस

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एक

बार-बार टूटता है हौसला
और बार-बार जुड़ता है
फिर से टूट जाने के लिए

दो

खुद को सहेजने की कोशिश में
बिखर-बिखर जाता हूँ
बार-बार सिलता हूँ खुद को
और उधड़-उधड़ जाता हूँ।

तीन

बार-बार खोजता हूँ रास्ता
और भटक जाता हूँ बार-बार
जहाँ से करता हूँ शुरूआत
फिर वहीं पहुँच जाता हूँ
2005


<poem>
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