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पखेरू / गोबिन्द प्रसाद

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<poem>

भोर का
बावला पाखी मैं
भटकता हुआ दिन
मेरे साथ
गुम्बदों के अंक में
सिमट जाएगा

और पश्चिम दिशा
का संसार रात होने तक
उन कंगूरों पर छा जाएगा
-सहसा गंध-सा

डूबती सांझ के
उस उजले आलोक में
स्मृति के कैनवास पर
देर तक काँपेगी एक छायामय आकृति
फिर;चाहे वह
झरती हुई पत्ती
हो,या ...तुम!

सूरज फिर उगेगा
पूरब की ओर से!!
<poem>
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