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{{KKRachna
|रचनाकार=गोबिन्द प्रसाद
|संग्रह=कोई ऐसा शब्द दो / गोबिन्द प्रसाद
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
डूबती साँझ के
गर्भ से उगने वाले दिन का
छलकता है उल्लास तुम्हारे चेहरे पर
लेकिन ठहरो
चुपचाप प्रार्थनाएँ करो
उन बच्चों के लिए जिन्होंने
अभी अभी;इस संसार में आँखें खोली हैं
उन बच्चों की
बेख़ाब आँखों के बारे में सोचो
जो रात भर के देखे सपनों को;सुबह के
सूरज के सामने आँख नहीं मिला सकते
फुटपाथों पर बिताई गई रात
के सपनों को न चाहते हुए भी
धूल की तरह झाड़ कर चल देंगे
पालिश की पेटियों को लाद कर
अपनी पीठ पर
उनका सूरज
पूरब से नहीं
कार से उतरता हुआ
पैर का वह जूता है
जिसे वे बच्चे
अपने भविष्य की तरह चमकाते हैं
पटरियों पर रातें काटते
अजनबी शहरों की गलियों के नुक्कंड़ों पर
भटकते ठिठकते
अपने गाँव से छीन ले जाती
रेलों से चढ़ते उतरते
उनका गाँव
हज़ारों मील दूर छूट गया है
अब वह माँ भी छूट गयी है
जो उन्हें
उन के पिता के बारे में बताती थी
कच्चे घरों की गंध में
उसारे में बैठ चाँदनी रात में देर तक
पुरखों के क़िस्से सुनाती थी
अब;अँधेरे से लड़ती दो आँखें हैं बस
खण्डहर की तरह
जो उन क़िस्सों की गठरी
और कच्चे घरों की दीवारों
के मलवे को
ढोती फिरती हैं शहर दर शहर
और ;वह गंध...
शायद अब नहीं रही
<poem>
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|रचनाकार=गोबिन्द प्रसाद
|संग्रह=कोई ऐसा शब्द दो / गोबिन्द प्रसाद
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डूबती साँझ के
गर्भ से उगने वाले दिन का
छलकता है उल्लास तुम्हारे चेहरे पर
लेकिन ठहरो
चुपचाप प्रार्थनाएँ करो
उन बच्चों के लिए जिन्होंने
अभी अभी;इस संसार में आँखें खोली हैं
उन बच्चों की
बेख़ाब आँखों के बारे में सोचो
जो रात भर के देखे सपनों को;सुबह के
सूरज के सामने आँख नहीं मिला सकते
फुटपाथों पर बिताई गई रात
के सपनों को न चाहते हुए भी
धूल की तरह झाड़ कर चल देंगे
पालिश की पेटियों को लाद कर
अपनी पीठ पर
उनका सूरज
पूरब से नहीं
कार से उतरता हुआ
पैर का वह जूता है
जिसे वे बच्चे
अपने भविष्य की तरह चमकाते हैं
पटरियों पर रातें काटते
अजनबी शहरों की गलियों के नुक्कंड़ों पर
भटकते ठिठकते
अपने गाँव से छीन ले जाती
रेलों से चढ़ते उतरते
उनका गाँव
हज़ारों मील दूर छूट गया है
अब वह माँ भी छूट गयी है
जो उन्हें
उन के पिता के बारे में बताती थी
कच्चे घरों की गंध में
उसारे में बैठ चाँदनी रात में देर तक
पुरखों के क़िस्से सुनाती थी
अब;अँधेरे से लड़ती दो आँखें हैं बस
खण्डहर की तरह
जो उन क़िस्सों की गठरी
और कच्चे घरों की दीवारों
के मलवे को
ढोती फिरती हैं शहर दर शहर
और ;वह गंध...
शायद अब नहीं रही
<poem>