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Kavita Kosh से
बस, जहां भी लटका दो--
संसद में, चौक में
मस्जिद में, मंदिर में , भीड़ उमड़ पड़ती है,--
संतों, फकीरों, खद्दरधारियों की,
सभी कतार में खड़े-खड़े
मुझे उस पीढ़े पर रखकर
जिस पर बैठ
तुलसी ने रचा था 'मानस',
उस खूंटे पर लटकाता है
मेरा लहूलुहान
दस्त, चुस्ता, पुट्ठा और चाप
जिसे ईसा का क्रूस कहते हैं,
उस गीले कपड़े से
ढंकता है मुझे
सिखाया था
असीम प्रेम का
संधि-सबक,
उस तराजू पर तौलता है
मेरे फड़कते हिज्जों को
निर्दोषिता के बराबर पुरस्कार
तौल-तौल
अपराजेय न्याय किया करता था,
उस स्थान से बेचता है
मेरी लसलसाती कतरनों को