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सामना / ओम भारती

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<poem>
मई थी, और दोपहर
लू का ख़ौफ़ ख़बरों में
ख़ासी जगह घेरता हो, वैसी

सामने में
सिर्फ़ एक स्त्री थी उस वक़्त
सड़क पर
मटकों से भरा हुआ टोकरा
उठाए माथे पर
जोखिम की तरह

'लो मटकेSSS'

मटकों के जल से भी
शीतल अधिक ही था
स्त्री का आलाप
कि मई का मन होने लगा था
मटकों की ठंडक में हलक तक
डूब कर मर जाने का

आइसक्रीम खाने पर स्टिकर मुफ़्त थे
कोल्ड ड्रिंक का ढक्कन
इनामों में खुलता था
पंखों-कूलरों पर छूट बहुत भारी थी
रेफ्रीजरेटरों के दाम
पानी के मुकाबले
घटा दिए गये थे
डंकल और गेट के भभकों से
पसीने-पसीने था पूरा प्रतिपक्ष
ऐसे में सुना मैंने शहर में
सिर्फ़ एक साहस का स्वर-
'लो मटकेSSS'।
(1993)
</poem>