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रात खाई में पड़ी है / नईम

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<poem>
रात खाई में पड़ी है,
जा छुपे दिन खंदकों में!
नाम अपना खोजता हूँ,
गुमशुदा या बंधकों में।

बँट रहे हैं रस्सियों में
मूँज-से हम,
खोखली इतिहास की
अनुगूँज से हम!
रह गए होकर विभाजित
सिख, मराठा, गोरखों में।

मोर्चा खाई हुई-
जंगी व्यवस्था,
अन्न से भी
आदमी का गोश्त सस्ता-
धो रहे हम तिलक छापे
गोमती या गंडकी में।

सिसकियाँ सहमी
ठहाके जड़ हुए हैं,
धर्म, धन के-
संतुलन घट-बढ़ हुए हैं!
रात बारूदों धँसी तो
जा बसे दिन गंधकों में।
</poem>