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मुखालिफ तो हजारों काफिले थे
मगर कुछ कट के हम से आ मिले थे

ऋचाएं, आयतें जब याद आईं
जुबानें कट चुकी थीं, लब सिले थे

धुँआ हर सिम्त फैला, बस ज़रा सी
हवा के जोर से पत्ते हिले थे

अंधेरों की घुटन में जी रहे हैं
वही, सूरज से जिनके सिलसिले थे

हजारों सर कटे, शर्मिन्दगी है
तुम्हारे पाँव घुटनों से छिले थे

चमन में जब बहार आई तो देखा
गुलों की तर्ज़ पर कांटे खिले थे

उसी की आरती होती है सर्वत
कि जिससे शहर को ढेरों गिले थे</poem>