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{{KKRachna
|रचनाकार=पूनम तुषामड़
|संग्रह=माँ मुझे मत दो / पूनम तुषामड़
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<poem>
वह जब बच्ची थी
तब से -
उसने देखा है कि -
किस तरह टूटती है
ख्वाबों की इमारतें
हर रोज़।

फिर भी -
इमारत बनाने का हौंसला
नहीं होता पस्त
क्योंकि -
सपनों को बुनने के लिए
जरूरत है जीने की
या जिंदा रहने की।

जीवित रहने की
इस जद्दोजहद को
पल-पल महसूस
किया है उसने।
जब उसकी माँ
गर्भावस्था में भी
काम पर जाती थी।
पिता के साथ
बराबर काम कराती थी
किन्तु ,
अपने श्रम की वह
पूरी कीमत
नहीं पाती थी
घर में रोटी थोड़ी
और बाहर पैसा
कम पाती थी।

वह कहती है
माँ एक बेटे की
चाह में हर बार
गर्भवती हो जाती थी।
बावजूद सारी झाड़-फूंक
और टोने-टोटकों के
अपनी गोद में
एक और
बेटी ही पाती थी

अब वह सात बेटियों की
मां हो गई है
परन्तु उसने हिम्मत नहीं हारी
अबकी मिला है
उसे पुत्रा-धन
जिसकी चाह में
वह खुद
एक खाली मकान के
ढांचे-सी हो गई है।
</poem>