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लोकतंत्र की धूल / पूनम तुषामड़

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<poem>
देखा आज
रास्ते में
घर जातेएक जीवित नर-कंकाल
हाथों की हड्डियों में थाम
कुछ खाता हुआ।

चिलचिलाती
धूप में
नंगे पांव
ट्रेफिक के बीच
दौड़ता
एक बचपन
अखबार-अखबार
आवाज लगाता हुआ।

पास से गुजरती
सर-सर करती
पसीने से
तर-बतर
मलीन हाथों में थमी
एक लंबी झाडू
अपना काम कर जाती है
मेरी आंखों पर पड़ी
लोकतंत्र की धूल को
साफ कर जाती है।
</poem>