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|रचनाकार=दाग़ देहलवी
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<poem>
हर बार मांगती है नया चश्म-ए-यार दिल
इक दिल के किस तरह से बनाऊं हज़ार दिल
हर बार मांगती है नया चश्मपूछा जो उस ने तालिब-ए-यार दिल<br>रोज़-जज़ा है कौनइक दिल के किस तरह निकला मेरी ज़बान से बनाऊं हज़ार बे-इख्तियार दिल<br><br>
पूछा जो उस ने तालिबकरते हो अहद-ए-रोज़-जज़ा है कौन<br>वस्ल तो इतना रहे ख़यालनिकला मेरी ज़बान पैमान से बे-इख्तियार ज्यदा है नापायदार दिल<br><br>
करते हो अहद-ए-वस्ल तो इतना रहे ख़याल<br>पैमान से ज्यदा है नापायदार दिल<br><br> उस ने कहा है सब्र पड़ेगा रक़ीब का<br>ले और बेकरार हुआ ऐ बेकरार दिल <br><br/poem>
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