भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
अब मै सूरज को नही डूबने दूंगा।
देखो मैने कंधे चौडे चौड़े कर लिये हैं
मुट्ठियाँ मजबूत कर ली हैं
और ढलान पर एडियाँ एड़ियाँ जमाकर
मै क्षितिज पर जा रहा हूँ।
सूरज ठीक जब पहाडी से लुढकने लुढ़कने लगेगा
मै कंधे अडा अड़ा दूंगा
देखना वह वहीं ठहरा होगा।
मैने सुना है उसके रथ मे तुम हो
तुम जो स्वाधीनता की प्रतिमा हो
तुम जो साहस की मुर्ति मूर्ति हो
तुम जो धरती का सुख हो
तुम जो मेरी चेतना का विस्तार हो
रथ के घोडे घोड़े
आग उगलते रहें
अब पहिये टस से मस नही होंगे
मैने अपने कंधे चौडे चौड़े कर लिये है।
कौन रोकेगा तुम्हें
मैने धरती बडी बड़ी कर ली है
अन्न की सुनहरी बालियों से
मै तुम्हे तुम्हें सजाऊँगा
मैने सीना खोल लिया है
प्यार के गीतो मे मै तुम्हे गाऊंगा
मैने दृष्टि बडी बड़ी कर ली है
हर आखों मे तुम्हे आँखों में तुम्हें सपनों सा फहराऊंगा।
हमारे संकल्पों मे
हमारे रतजगो रतजगों मे
तुम उदास मत होओ