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Kavita Kosh से
|रचनाकार=सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
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<poem>
उठो, कब तक बैठी रहोगी
इस तरह अनमनी
चलो घूम आएं।आएँ।
तुम अपनी बरसाती डाल लो
झीसियाँ पड़नी शुरु हो गई हैं
जब झमाझम बरसने लगेंगे
किसी पेड़ के नीचे खड़े हो जाएंगेजाएँगे
पेड़ –
उग नहीं रहा है तेज़ी से
हमारी-तुम्हारी हथेलियों के बीच
थोड़ी देर में देखना, यह एक
छतनार दरख़्त में बदल जाएगा।जाएगा ।
और कसकर पकड़ लो मेरा हाथ
अपने हाथों से
उठो, हथेलियों को गर्म होने दो
इस हैरत से क्या देखती हो?
मैं भीग रहा हूँ
तुम अगर यूँ ही बैठी रहोगी
अच्छा छोड़ो
नहीं भीगते
तुम भीगने से डरती हो न!
उठो, देखो हवा
रास्ता जैसे बाहर से मुड़कर
हमारी धमनियों के जंगल में
चला जा रहा है।है ।उठो घूम आयेंआएँ
कब तक बैठी रहोगी
इस तरह अनमनी।अनमनी ।
इस जंगल की