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अहा ग्राम्य जीवन भी... / लाल्टू

46 bytes added, 06:42, 11 अक्टूबर 2010
|संग्रह=लोग ही चुनेंगे रंग / लाल्टू
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शाम होते ही उनके साथ उनकी शहरी गन्ध उस कमरे में बन्द हो जाती है ।
कभी-कभी अँधेरी रातों में रज़ाई में दुबकी मैं सुनती उनकी साँसों का आना-जाना ।
साफ़ आसमान में तारे तक टूटे मकान के एकमात्र कमरे के ऊपर मँडराते हैं ।
शाम होते ही उनके साथ उनकी शहरी गन्ध उस कमरे में बन्द हो जाती है .कभी-कभी अँधेरी रातों में रज़ाई में दुबकी वे जब जाते हैं मैं सुनती उनकी साँसों का आना-जाना .रोती हूँ ।साफ आसमान में तारे तक टूटे मकान उसने बचपन यहीं गुज़ारा है मिट्टी और गोबर के एकमात्र कमरे बीच, वह समझता है कि मैं उसे आँसुओं के ऊपर मँडराते हैं .उपहार देती हूँ ।जाते हुए वह दे जाता है किताबें साल भर जिन्हें सीने से लगाकर रखती हूँ मैं ।
वे जब जाते हैं मैं रोती साल भर इन्तज़ार करती हूँ .कि उनके आँगन में बँधी हमारी सोहनी फिर बसन्त राग गाएगी ।उसने बचपन यहीं गुज़ारा है मिट्टी और गोबर के बीच, वह समझता है फिर डब्बू का भौंकना सुन माँ दरवाज़ा खोलेगी कहेगी कि मैं उसे आँसुओं के उपहार देती हूँ.जाते हुए वह दे जाता है किताबें साल भर जिन्हें सीने से लगाकर रखती हूँ मैं .काटेगा नहीं ।
साल भर इन्तज़ार करती हूँ कि उनके आँगन में बँधी हमारी सोहनी फिर बसन्त राग गाएगी.फिर डब्बू का भौंकना सुन माँ दरवाज़ा खोलेगी कहेगी कि काटेगा नहीं . फिर किताब मिलेगी जिसमें होगी कविता - अहा ग्राम्य जीवन भी ...</poem>
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