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Kavita Kosh से
<poem>एक बरती हुई दिनचर्या अब
छूट गई है आंख से बाहर
उतर रही है धीरे धीरे
मुझे पानी और मिट्टी के बीच
एक बीज की तरह
बने रहना है पृथ्वी की कोख में!</poem >