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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=जयकृष्ण राय तुषार}}{{KKCatGhazal}}<poem>ये नहीं पूछो कहां, किस रंग का, किस ओर है<br />इस व्यवस्था के घने जंगल में आदमखोर है<br />
मुख्‌य सड़कों पर अंधेरे की भयावहता बढ़ी<br />जगमगाती रोशनी के बीच कारीडोर है<br />
आत्महत्या पर किसानों की सदन में चुप्पियां<br />मुल्क मेरा इन दिनों शहरीकरण की ओर है<br />
इन पतंगों का बहुत मुश्किल है उडना देर तक<br />छत किसी की, हाथ कोई और किसी की डोर है<br />
भ्रष्ट शासन तंत्र की नागिन बहुत लंबी हुई<br />है शरीके जंग कुछ तो नेवला या मोर है<br />
कठपुतलियां हैं वही बदले हुए इस मंच पर<br />देखकर यह माजरा दर्शक बेचारा बोर है<br />
नाव का जलमग्न होना चक्रवातों के बिना<br />है ये अंदेशा कि नाविक का हुनर कमजोर है<br />
मौसमों ने कह दिया हालात सुधरे हैं मगर<br />शाम-धुंधली, दिन कलंकित, रक्तरंजित भोर है<br />
किस तरह सद्‌भावना के बीज का हो अंकुरण<br />एक है गूंगी पडोसन, दूसरी मुंहजोर है<br />
नाव पर चढ ते समय भी भीड में था शोरगुल<br />अब जो चीखें आ रहीं वो डूबने का शोर है।<br /poem>
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