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गवाही / मणि मधुकर

144 bytes added, 19:31, 30 अक्टूबर 2010
{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मणि मधुकर|संग्रह=}}{{KKCatKavita‎}}<poemPoem>जख्‍म ज़ख़्म जब सूखने लगा और खून ख़ून ने एकगैरवाजिब ग़ैरवाजिब चुप्‍पी अख्तियार अख़्तियार कर ली तो वे मेरे सिर परचाणक्‍य का अर्थशास्‍त्र तानकर खड़े हो गयेगए
मोमबत्तियां मोमबत्तियाँ जल रही थीं जलसे में
मोम कुछ दरारों में गिरकर शासन की आत्‍मकथा तक
पहुंच पहुँच रहा था
जिसमें मुहावरों की बंजर जमीन थी या मोटी चमड़ी की आभा
चाहने भर की देर थी
मैं भी कुछ निकम्‍मी हड्डियों और अनाथ खुशियों ख़ुशियों को
ठेले में भरकर
बांबियों के बीच से रास्‍ता बना सकता था
मेरे जिस्‍म में एक खाली पेट और मवाली अहसास था
इससे पहले कि कोई बेसब्री का अनुवाद करे
चिडि़यों के आगे चालाकी के दाने बिखरायेबिखराए
मुझे उन हादसों में
उतरना था जिनके भीतर
जिन्‍दगी ज़िन्‍दगी की साबुत
मुस्‍कराहटें उगती हैं
यह जानते हुए कि जख्‍म ज़ख़्म एक खुले मर्तबान
की तरह मैदान में रखा हुआ है
मैंने उन खुदगर्ज हर्फों ख़ुदगर्ज़ हफ़ों के खिलाफ खिलाफ़ गवाही दीजो रोजमर्रा रोज़मर्रा की तकलीफों तकलीफ़ों की
नगरपालिका की ओर धकेल रहे थे
वे उस वक्‍त वक़्त भी मेरे चौतरु हैं
उनकी गुर्राहट
कपड़ों की सलवटों में खो गयी गई हैंऔर मेरी नफरत नफ़रत मेरी बेचैनी सूखे जख्‍म ज़ख़्म की भांतिभाँतिसख्‍त सख़्त गाड़ी खुरदरी हो गयी गई है !
('बलराम के हजारों नाम' से)
</poem>
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