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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=किशोर कल्पनाकांत |संग्रह=}}{{KKCatKavita‎}}<poemPoem>मैं तो भजन भाव हूँ , मन के तंबूरे पर गाओ !मुझ में ध्वनित शब्द नाद को साधो ,तुम अपनाओ !
में न कभी परिभाषित होता , 'मैं' को 'मैं' ही जानो !भजनभाव में विह्वल हो कर ,'मैं' को तुम अनुमानों !सुनाने वाला मिले न कोई , ' मैं' को बैठ सुनाओ !मैं तो भजन भाव हूँ , मन के तंबूरे पर गाओ !
भव उत्पीडित सकल जगत है घोर भयावह भाथी!निविड़ - निभृत जीवन में, प्रिय तुम, ढून्ढ रहे हो साथी!चरैवेति का चाक्छुस चंदन , घिस -घिस माथ लगाओ !मैं तो भजन भाव हूँ , मन के तंबूरे पर गाओ !
व्योम-विहग बन उड़ा प्राण जो , कहाँ पहुँच कर थमता?छोर-हीन विस्तार व्याप्त है , वह जोगी है रमता !अपरा के सम्मोहन में तुम मत उस को उलझाओ!मैं तो भजन भाव हूँ , मन के तंबूरे पर गाओ !
तीन काल की त्रिभुवन यात्रा , मैं तो अथक बटोही!ढून्ढ रहा अपने ही भीतर , 'मैं' को मैं हूँ टोही!'स्व' को भजन बनाया मैंने , 'स्व' को मत अलगाओ!मैं तो भजन भाव हूँ , मन के तंबूरे पर गाओ !
</poem>
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