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{{KKRachna
|रचनाकार=गोपालदास "नीरज"
|संग्रह=}} {{KKCatKavita‎}}<poem>अंधियार ढल कर ही रहेगा <br><br>
आंधियां चाहें उठाओ,<br>बिजलियां चाहें गिराओ,<br>जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।<br><br>
रोशनी पूंजी नहीं है, जो तिजोरी में समाये,<br>वह खिलौना भी न, जिसका दाम हर गाहक लगाये,<br>वह पसीने की हंसी है, वह शहीदों की उमर है,<br>जो नया सूरज उगाये जब तड़पकर तिलमिलाये,<br>उग रही लौ को न टोको,<br>ज्योति के रथ को न रोको,<br>यह सुबह का दूत हर तम को निगलकर ही रहेगा।<br>जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।<br><br>
दीप कैसा हो, कहीं हो, सूर्य का अवतार है वह,<br>धूप में कुछ भी न, तम में किन्तु पहरेदार है वह,<br>दूर से तो एक ही बस फूंक का वह है तमाशा,<br>देह से छू जाय तो फिर विप्लवी अंगार है वह,<br>व्यर्थ है दीवार गढना,<br>लाख लाख किवाड़ जड़ना,<br>मृतिका के हांथ में अमरित मचलकर ही रहेगा।<br>जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।<br><br>
है जवानी तो हवा हर एक घूंघट खोलती है,<br>टोक दो तो आंधियों की बोलियों में बोलती है,<br>वह नहीं कानून जाने, वह नहीं प्रतिबन्ध माने,<br>वह पहाड़ों पर बदलियों सी उछलती डोलती है,<br>जाल चांदी का लपेटो,<br>खून का सौदा समेटो,<br>आदमी हर कैद से बाहर निकलकर ही रहेगा।<br>जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।<br><br>
वक्त को जिसने नहीं समझा उसे मिटना पड़ा है,<br>बच गया तलवार से तो फूल से कटना पड़ा है,<br>क्यों न कितनी ही बड़ी हो, क्यों न कितनी ही कठिन हो,<br>हर नदी की राह से चट्टान को हटना पड़ा है,<br>उस सुबह से सन्धि कर लो,<br>हर किरन की मांग भर लो,<br>है जगा इन्सान तो मौसम बदलकर ही रहेगा।<br>जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा|<br>रहेगा।<br/poem>
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