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माँ / भाग १८ / मुनव्वर राना

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चमक ऐसे नहीं आती है ख़ुद्दारी के चेहरे पर
 
अना को हमने दो—दो वक़्त का फ़ाक़ा कराया है
 
ज़रा—सी बात पे आँखें बरसने लगती थीं
 
कहाँ चले गये मौसम वो चाहतों वाले
 
मैं इस ख़याल से जाता नहीं हूँ गाँव कभी
 
वहाँ के लोगों ने देखा है बचपना मेरा
 
हम न दिल्ली थे न मज़दूर की बेटी लेकिन
 
क़ाफ़िले जो भी इधर आये हमें लूट गये
 
अब मुझे अपने हरीफ़ों से ज़रा भी डर नहीं
 
मेरे कपड़े भाइयों के जिस्म पर आने लगे
 
तन्हा मुझे कभी न समझना मेरे हरीफ़
 
इक भाई मर चुका है मगर एक घर में है
 
मैदान से अब लौट के जाना भी है दुश्वार
 
किस मोड़ पे दुश्मन से क़राबत निकल गई
 
मुक़द्दर में लिखा कर लाये हैं हम दर—ब—दर फिरना
 
परिंदे कोई मौसम हो परेशानी में रहते हैं
 
मैं पटरियों की तरह ज़मीं पर पड़ा रहा
 
सीने से ग़म गुज़रते रहे रेल की तरह
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