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|रचनाकार=राजीव भरोल
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वतन, गाँव, घर याद आते बहुत थे,
मगर फिर भी हम मुस्कुराते बहुत थे.

चिराग़ों के जैसी पतंगें बना कर,
हवाओं को हम भी चिढ़ाते बहुत थे.

मेरे क़त्ल का शक गया दोस्तों पर,
वही मेरे घर आते जाते बहुत थे.

सराबों को वो सामने रख के अक्सर,
मेरी तिश्नगी आज़माते बहुत थे,

था जब तक ये ईमान का बोझ सर पे,
क़दम जाने क्यों लड़खड़ाते बहुत थे,

हम अपने ही घर में सवालों के डर से,
परेशानियों को छुपाते बहुत थे.
</poem>