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मन चाहिए / रमानाथ अवस्थी

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|रचनाकार=रमानाथ अवस्थी
}}
{{KKCatGeet}}<poem>कुछ कर गुजरने गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहियेचाहिए
थककर बैठो नहीं प्रतीक्षा कर रहा कोई कहीं
 
हारे नहीं जब हौसले
 
तब कम हुये सब फासले
दूरी कहीं कोई नहीं केवल समर्पण चाहिए !
दूरी कहीं कोई नहीं केवल समर्पण चाहिये! कुछ कर गुजरने गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहियेचाहिए
हर दर्द झूठा लग रहा सहकर मजा आता नहीं
आँसू वही आँखें वही
कुछ है ग़लत कुछ है सही
जिसमें नया कुछ दिख सके वह एक दर्पण चाहिए !
आंसू वही आंखें वही कुछ है गलत कुछ है सही जिसमें नया कुछ दिख सके वह एक दर्पण चाहिये! कुछ कर गुजरने गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिये!   राहें पुरानी पड़ गयीं आखिर मुसाफिर क्या करेचाहिए !
राहें पुरानी पड़ गईं आख़िर मुसाफ़िर क्या करे !
सम्भोग से सन्यास तक
 
आवास से आकाश तक
भटके हुये इन्सान को कुछ और जीवन चाहिए !
भटके हुये इन्सान को कुछ और जीवन चाहियेकर गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिए !
कुछ कर गुजरने के लिये मौसम नहीं, मन चाहियेकोई न हो जब साथ तो एकान्त को आवाज़ दें !इस पार क्या उस पार क्या !पतवार क्या मँझधार क्या !!हर प्यास को जो दे डुबा वह एक सावन चाहिए !
कुछ कर गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिए !
 कोई न हो जब साथ तो एकान्त को आवाज दें! इस पार क्या उस पार क्या! पतवार क्या मंझधार क्या!! हर प्यास को जो दे डुबा वह एक सावन चाहिये! कुछ कर गुजरने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिये!   कैसे जियें कैसे मरें यह तो पुरानी बात है! 
जो कर सकें आओ करें
 
बदनामियों से क्यों डरें
जिसमें नियम-संयम न हो वह प्यार का क्षण चाहिए!
जिसमें नियम-संयम न हो वह प्यार का क्षण चाहिये! कुछ कर गुजरने गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहियेचाहिए !</poem>
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