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|रचनाकार=चन्द्रकान्त देवताले
|संग्रह=लकड़बग्घा हँस रहा है / चन्द्रकान्त देवताले
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<poem>

सूरज का तेज़ धूप पत्थरों को
कुरेद रही है
समुद्र का पानी पत्थरों को
थरथरा रहा है

ठण्डी हवा मुझे
बहुत दूर पहुँचा रही है

यहाँ कभी उत्सवों के दिन रात थे
वहाँ तुम दोपहर में सोई हुई होगी

इधर पत्थरों के रथ रेत में
धँसे हुए
गोपुरम का मस्तक केवल दूर
समुद्र में झिलमिला रहा

मैं अब तुम्हारे लिए सुन रहा हूँ
समुद्र और हवा का संवाद
तुम्हारी आँखें चमककर मेरे भीतर
देख रही हैं चटकीला आकाश

आकाश के एकांत को रौंदता
जा रहा हैं एक जेट यान

धूप में खिल गई है तुम्हारी हँसी

आया था तब बेहद अकेला था
मैं इतने बड़े समुद्र के पास
और अब मेरे सामने कितना
अकेला है यह बेचारा समुद्र
</poem>