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Kavita Kosh से
चाबियों का गुच्छा अंटी में दबा
इत्मिनान से रात में
समाने चली जाती है,
उदास भूत और कहीं नहीं
यहीं मिलते हैं--दम साधे हुए
सोचा था इस छायादार पेड़ के नीचे
अमन-चैन की बयार बहेगी
साफ-सुथरी आबोहावा आबोहवा में
हथियारों की फसलों के बजाय
गुच्छेदार गुलदार इंसानियत वाले
गुमसुम भूतों की सफेद आंखों में
अफसोस के काले बादल घुमड़ते हुए
इंडिया गेट के ऊपर पसर जाते हैं
जैसे जनाजे को कफन से ढँक दिया गया हो आखिर, ऐसा आलम क्यों हैं,
भूत खुश क्यों नहीं हैं
चुनिन्दा बड़े लोगों से
उसे भरपूर भोग रहे हैं
इस बात से बेफिक्र होकर कि
उन्हें शुक्रगुजार होना चाहिये इन भूतों का
जिन्होंने इस योनि से पहले
इस बच्ची को फिरंगी व्यभिचारियों से
बेशक! आजादी के खबरनामचों से
भूत पीड़ित क्यों हैं?
वे हर बात पर
और मायूस क्यों हैं?
जबकि आजादी के मिसाल बने
धर्माधीश, सियासतदार और सामाजिक गुर्गे