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जाग्रत्स्वप्न सुषुत्पिषु स्फुटतरा या संविदुज्जृम्भते
या ब्रह्मादि पिपीलिकान्त तनुषु प्रोता जगत्साक्षिणी,
सैवाहं न च दृश्य वस्त्विति दृढ प्रज्ञापि यस्यास्तिचे
च्चण्डालोस्तु स तु द्विजोस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम
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