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भीतर से भीतर जाने में / अनिरुद्ध नीरव
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06:30, 2 दिसम्बर 2010
इस तम का दाब टनों है मगर
कड़कड़ बज उठती हैं हड्डियाँ
टूटूँगा इस भय से क्या करूँ ?
झुक जाता हूँ
अनिल जनविजय
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