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{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
}}
श्यामा रानी थी पड़ी रोग की शय्या पर,
दो सौ सोलह दिन कठिन कष्ट में थे बीते,
संघर्ष मौत से बचने और बचाने का
था छिड़ा हुआ, या हम जीतें या वह जीते।
सहसा मुझको यह लगा, हार उसने मानी,
तन डाल दिया ढीला, आँखों से अश्रु बहे,
बोली, 'मुझपर कोई ऐसी रचना करना,
जिससे दुनिया के अंदर मेरी याद रहे।'
मैं चौक पड़ा, ये शब्द इस तरह के थे जो
बैठते न थे उसके चरित्र के ढाँचे में,
वह बनी हुई थी और तरह की मिट्टी से,
वह ढली हुई थी और तरह की साँचे में,
जिसमें दुनिया के प्रति अनंत आकर्षण था,
जिसमें जीवन के प्रति असीम पिपासा थी,
जिसमें अपनी लघुता की वह व्यापकता थी,
यश, नाम, याद की रंच नहीं अभिलाषा थी।
क्या निकट मृत्यु के आ मनुष्य बदला करता
चट मैंने उनकी आँखों में आँखें डालीं,
वे झुठ नहीं पल भर पलकों में छिपा सकीं,
वे बोल उठी सच, थीं इतनी भोली-भाली।
'जब मैं न रहूँगी तब घड़ियों का सूनापन,
खालीपन तुम्हें डराएगा, खा जाएगा,
मेरा कहना करने में तुम लग जाओगे,
तो वह विधुरा घड़ियों का मन बहलाएगा।'
मैं बहुत दिनों से ऐसा सुनता आता हूँ,
जो ताज आगरा के जमुना के तट पर है,
मुमताज़महल के तन-मन के मोहकता के
प्रति शाहजहाँका प्रीति-प्रतीक मनोहर है।
मुमताज़ आख़िरी साँसों से यह बोली थी,
'मेरी समाधी पर ऐसी रौज़ा बनवाना,
जैसा न कहीं दुनिया में हो, जैसा न कभी
संभव हो पाए फिर दुनिया में बन पाना।'
मुमताज़महल जब चली गई तब शाहजहाँ
की सूनी, खाली, काली, कतार घड़ियों को,
यह ताजमहल ही बहलाता था, सहलाता था,
जोड़ा करता था सुधि की टूटी लड़ियों को।
मुमताज़महल भी नहीं नाम की भूखी थी,
आख़िरी नज़र से शाहजहाँ की ओर देख,
वह समझ गई थी जो रहस्य संकेतों से
बतलाती थी उसके माथे पर पड़ी रेख।
वह काँप उठी, अपनी अंतिम इच्छा कहकर
वह विदा हुई औ' शाहजहाँ का ध्यान लगा,
उन अशुभ इरादों से हटकर उन सपनों में
जो अपने अस्फुठ शब्दों से वह गई जगा।
यह ताज शाह का प्रेम-प्रतीक नहीं इतना
जितना मुमताजमहल के कोमल भावों का,
जो जीकर शीतल सीकर बनता तपों पर,
जो मरकर सुखकर मरहम बनता घावों का!
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|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
}}
श्यामा रानी थी पड़ी रोग की शय्या पर,
दो सौ सोलह दिन कठिन कष्ट में थे बीते,
संघर्ष मौत से बचने और बचाने का
था छिड़ा हुआ, या हम जीतें या वह जीते।
सहसा मुझको यह लगा, हार उसने मानी,
तन डाल दिया ढीला, आँखों से अश्रु बहे,
बोली, 'मुझपर कोई ऐसी रचना करना,
जिससे दुनिया के अंदर मेरी याद रहे।'
मैं चौक पड़ा, ये शब्द इस तरह के थे जो
बैठते न थे उसके चरित्र के ढाँचे में,
वह बनी हुई थी और तरह की मिट्टी से,
वह ढली हुई थी और तरह की साँचे में,
जिसमें दुनिया के प्रति अनंत आकर्षण था,
जिसमें जीवन के प्रति असीम पिपासा थी,
जिसमें अपनी लघुता की वह व्यापकता थी,
यश, नाम, याद की रंच नहीं अभिलाषा थी।
क्या निकट मृत्यु के आ मनुष्य बदला करता
चट मैंने उनकी आँखों में आँखें डालीं,
वे झुठ नहीं पल भर पलकों में छिपा सकीं,
वे बोल उठी सच, थीं इतनी भोली-भाली।
'जब मैं न रहूँगी तब घड़ियों का सूनापन,
खालीपन तुम्हें डराएगा, खा जाएगा,
मेरा कहना करने में तुम लग जाओगे,
तो वह विधुरा घड़ियों का मन बहलाएगा।'
मैं बहुत दिनों से ऐसा सुनता आता हूँ,
जो ताज आगरा के जमुना के तट पर है,
मुमताज़महल के तन-मन के मोहकता के
प्रति शाहजहाँका प्रीति-प्रतीक मनोहर है।
मुमताज़ आख़िरी साँसों से यह बोली थी,
'मेरी समाधी पर ऐसी रौज़ा बनवाना,
जैसा न कहीं दुनिया में हो, जैसा न कभी
संभव हो पाए फिर दुनिया में बन पाना।'
मुमताज़महल जब चली गई तब शाहजहाँ
की सूनी, खाली, काली, कतार घड़ियों को,
यह ताजमहल ही बहलाता था, सहलाता था,
जोड़ा करता था सुधि की टूटी लड़ियों को।
मुमताज़महल भी नहीं नाम की भूखी थी,
आख़िरी नज़र से शाहजहाँ की ओर देख,
वह समझ गई थी जो रहस्य संकेतों से
बतलाती थी उसके माथे पर पड़ी रेख।
वह काँप उठी, अपनी अंतिम इच्छा कहकर
वह विदा हुई औ' शाहजहाँ का ध्यान लगा,
उन अशुभ इरादों से हटकर उन सपनों में
जो अपने अस्फुठ शब्दों से वह गई जगा।
यह ताज शाह का प्रेम-प्रतीक नहीं इतना
जितना मुमताजमहल के कोमल भावों का,
जो जीकर शीतल सीकर बनता तपों पर,
जो मरकर सुखकर मरहम बनता घावों का!