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विश्लेषण / महेन्द्र भटनागर

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गँवाया ही गँवाया,

कुछ नहीं पाया,
ज़िन्दगी में कुछ नहीं पाया !
जो बच पाये
नुकीले शूल हैं,
जो उठा लाये
बेरंग बासी फूल हैं,
पास में
देखो धूल
कितनी धूल है !

राह पर
हर मोड़ पर,
घर में
या कि बाहर,
हाट में, बाज़ार में
विश्वास के हाथों
सदा लुटते रहे !
अपनों से
परायों से
हमेशा
छल-कपट की
तेज़ धारों की कटारों के तले
बेहद सरलता से
अरे, कटते रहे !
लोगों की
तमाम रची-बुनी
चतुराइयों-चालाकियों से
उनकी हीनताओं-क्षुद्रताओं से
बहुत चाहाµ
बचना;
किन्तु
ओढ़ी सौम्यता शालीनता की
आरोपित मुखौटों की
कठिन
बेहद कठिन
पहचानना रचना !
उनके छद्म से बचना !

नहीं है शेष
कोई भी विरासत,
ढह गयी
जो
श्रम-पसीने से
बनायी थी इमारत !