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विश्वस्त / महेन्द्र भटनागर

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सतत संघर्ष-रत
सर्वहारा,
ज़िन्दगी
बदली नहीं।
अडिग अनथक अकेला
सर्वहारा,
स्थिति
यथावत्
सुधरी नहीं, सँभली नहीं।

व्यवस्था को
निरन्तर
और अंतिम साँस तक
दलित देगा चुनौती,
याद रक्खो
तड़पती घायल
लहू-मुख चीखती
जनता नहीं सोती !

विद्रोह का संकल्प
मर्मान्तक प्रहारों से
कम नहीं होता,
प्रतिबद्ध को
क्षति का, पराजय का
ग़म नहीं होता !

आवेश का सैलाब

आएगा !

पाशव अमानुष वर्ग के
मज़बूत दुर्गों को

ढहाएगा !