भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विश्वास / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 तुम्हारा यह उद्धत विद्रोही
घिरा हुआ है जग से पर है सदा अलग, निर्मोही!
जीवन-सागर हहर-हहर कर उसे लीलने आता दुर्धर
पर वह बढ़ता ही जाएगा लहरों पर आरोही!

जगती का अविरल कोलाहल कर न सकेगा उस को बेकल
ओ आलोक! नयन उस के अनिमिष लखते तुम को ही।
कैसे खोएगा वह पथ को तुम्हीं एक जब पथ-दर्शक हो
एक साँकरा मग है, और अकेला एक बटोही!
तुम्हारा यह उद्धत विद्रोही!

लाहौर, 8 मई, 1935