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विष भरे अजदहे को जरा रोकिये, वर्ना सारी जमीं को निगल जायेगा / उर्मिल सत्यभूषण

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विष भरे अजदहे को जरा रोकिये, वर्ना सारी जमीं को निगल जायेगा
धूल, धुंये के, इन बादलों के तले, सारी तहज़ीव का दम निकल जायेगा

तमतमाते हुये, लपलपाते हुये, भीड़ के सांप हैं, फन उठाते हुये
एक दूजे को डसते मसल जायेंगे, जिं़दगी का नज़ारा, बदल जायेगा

भूख इस ओर है, प्यास उस ओर है, हर तरफ कर्णभेदी कटु शोर है
जिस तरफ दृष्टि डालें क़तारे ही हैं, देखकर खुद खुदा भी दहल जायेगा

शहर से गांव से, हर किसी ठांव से, वन-पहाड़ों से और धूप से छांव से
हर दिशा से चले मनचले काफ़िले, इन हवाओं का छल सबको छल जायेगा

पेड़-पौधे कटे, जीव-जंतु घटें, हर तरफ कंकरीटों के जंगल उगे
एक फिरकी सी घूमे है, अब जिं़दगी आदमी अब मशीनों में ढल जायेगा

रक्स करता समन्दर उबलता हुआ, आसमाँ जल रहा विष उगलता हुआ
इस ज़मीं का जिगर भी है जलता हुआ, उर्मिल लावे में सब कुछ ही जल जायेगा।