विहागरा भोजपुरी (भाषा) / शब्द प्रकाश / धरनीदास
109.
घर घरु आरी खसम पियारी। तेहि जनि भरमै कोय।
जे वर नारि विवेक न जानै, से व्यभिचारी जोय॥
बालपने सुख सहज गँवावल, तरुन उठो घन भार।
गोत पिता पितिया बंधूजन, दस बिस कैल भतार॥
काम ताप तन तबहुँ न बूझै, कैल विविध परकार।
अकरम करम कछू नहि सूझै, योवन मद मतवार॥
खेलत रहलिउँ वन खँड माँही, बहुत सहेलरि माँहि।
एक रसिक अति आगर नागर, धाइ धइल मोरि बाँहि॥
धरनी जिन रसिया रस पावल, बाढल युग अहिवात।
जे सुन्दरि मेारि माँग वइसिहैं, से बुझिहैं मोरि बात॥13॥
110.
औचक अइ गइला पियकैं सँदेशा, ताखन उठिलिउँ जागि।
राम राम के घरसे निकस लिउँ, जे जहँ से तँह त्यागि॥
सतकेँ सिंघोरा कापर मोरा, प्रेम पटम्बर पागि।
बाजन लागु चपल चौघरिया, चितको चतुरता भागि॥
पूर परी कुर खेतहिं चढ़लिउँ, जन परिजन से बागि।
करम भरम कर चिता सजावल, ब्रह्म अगिन तोहि लागि।
धरनी धनि तँह भरत भाँवरी, चित अनुभव अनुरागि।
अवरिक गवना वहुरि न अवना, बोलहु राम सभागि॥14॥
111.
अब ओझा एक देव महावल, दिहल गुरु दहिनाई।टेक।
देह देवकुरि चित चौरा बाँधल, निशिदिन करत ओझाई।
ज्ञान दिया तँह दृढ़ करि राखल, अनहद झाल बजाइ॥
सहजहि से देव दरसल, जन्म न पाटे जाइ।
जे अरदसिया अच्छत पावै, अगिन तासु घर लागि॥
कर्म भर्म कछुवो नहि बाँचै, दोषित दुर्मति भाव।
धरनीदास देवाइ गावल, पावल मंगल दाव॥
जे गुनिया मोर देव परेखे ताकर पूजाँ पाँव॥15॥
112.
सोखा शंभुनाथ को सुमिरौं, जो सब ऊपर नोखारे।
जे सोखा अभि-अंतर पोषा, अब जनि लागै घोखारे॥
परिहरि धोखा भजिले चोखा, मिटिहै लेखा जोखारे।
जग मग सोखा गगन झरोखा, निरतही निर्दोषा रे।
जेहि देवा ले छेरी छागर, तेहि जनि पूजो बाबारे।
देवकुरि के पथ जान न पैहो, बीच वस्तु है काबारे॥
से सोखा तजि श्वान संतोषा, सुत धनही जो गावै रे।
नहितो अंत नरकमें परिहै, धरनी जन समुझावै रे॥16॥
113.
रे मन मूरख अज्ञानी। एक सुमिरो सारँग पानी॥
मानुष देह बड़े तप पायो, बहुत दयाल दयासी।
जा घरते उठि आये या घ्ज्ञर, सो घर क्योँ बिसरासी॥
जो करना अबहीँ करि लीजै, आतुर जात जुआनी।
समुझि समुझि निशिदिन पछितैहो, जब जन होय पुरानी॥
जीव दया जेहि जीय न व्यापै, सो भर्मो चौरासी।
साधु संत गुरु मत छोड़ो, बूझो वेद निकासी॥
भजन बिना नरकै मँह डोलै, बारंबार झुलावै।
देव-इन्द्र गुरुदेव दयाते धरनीदास बुझावै॥17॥
114.
सुमिरु न कर्त्ताराम रे भैया।टेक।
अवरके सुमरन आस न पूजै, साँच सुनो मेरो भैया।
भांतिक तत्त्व मिलाइ महाप्रभु, सुन्दर देह बनैया॥
नर्क अघोर अघो मुख झुलै, ता दिनको रखवैया।
धु्रव प्रहलाद उधार निहारो, औ वलि वालि छरैया॥
शेष गणेश के खंड निहारो, रुकुमिनि हरषि हरैया।
कोकर पाथर देवा देई, बहु विश्वास बढ़ैया॥
अंत समय कोइ काम न ऐहै, नारि सुता सुत भैया।
बिनु सतगुरु सतलोक न सूझै, धरनीदास कहैया॥18॥
115.
या मन यहि विधि राम रमावै।टेक।
जब विश्वास बढ़ो अभि-अंतर, प्रगट पुकारि सुनावै॥
परमानन्द भाव जियमेँ होइ, पल भरि ना बिसरावै।
बिन पग छिन छिन रामके आगे, अपने मनहि नचावै॥
जो कछु खाव पिवो पहिरो जत, रामहि सकल चढ़ावै।
जँह उडि पंथ चलो कछु काजहिँ, रामहि आगु चलावै।
जँह उडि पंथ चलो कछु काजहिँ, रामहि आगु चलावै॥
मन मैना धरि तन पिजरा में, रामै राम पढ़ावै।
निरखि सरूप अनूप मगन मन, चन्द चकोर चितावै॥
रामके दासको आस करै मन, राम नगर घर छावै।
धरनी राम प्रताप युगै युग, बहुरि न भव-जल आवै॥19॥
116.
रे मन जात चला दुनियाई।
ताते हरि भजु गरब गंवाई॥
उमरा मीर मोगल उमदा जत, पातिसाह न रहाई।
जोरि बटोरि करोरिन कीनोँ, अंत चले कफनाई॥
राज कुँअर अरु बाबू भैया, राना रावत राई।
औचक चटकि चले हँडियासे, देहन स्वारथ लाई॥
प्रेम-प्रवाह जहाँ जँह वाढ़ो पार पहुँचे जाई।
अभि-अंतर को भेद न जानै, का भौ मुंड मुंडाई॥
देव-इन्द्र है हृदय हमारे, संतत संत-सहाई।
धरनी ताहि भजो निशिवासर, मोटि कपट चतुराई॥20॥
117.
भैया मोहि पर्व दिवारी पावै।टेक।
निशि दिन साँच सकारकि वेरी, उर अनुभव पद गावै।
सत-गुरु शब्द कया-मन्दिर में, जग मग दीप जरावै।
जूवा जीते काल वलीते, हार कबहिँ नहि आवै॥
हरि गुन हँसुआ तृष्णा सूपहिँ, सहजै सहज ठठावै।
ताघर ईश्वर अवशि वसेरो, दारिद निकट न आवै॥
जो जन जावै देव दिवारी, खीर खसम सो पावै।
गुरु प्रसाद साधु की संगति, धरनी वरनि न आवै॥21॥
118.
अरे मन! ध्यान अधर धरना।टेक।
परम तत्त्व परमादि परम गुरु, परमातम अशरन शरना॥
साधु संगति गहु सहज मगन रहु, निशि दिन जँह अजपा जपना।
तिरवेनी जँह संगमे तीरथ, अक्षयवर अवरन वरना॥
अनहद शब्द प्रगट प्रभु पूरन, पल पल अमिय झरत झरना।
धरनी चरन शरन मन वच क्रम, मेटहु अंक जरा मरना॥22॥
119.
आतम राम रमहु हो मना।टेक।
बहुत जनम भ्रम मेँ भटकत गो, अजहु भजो मन वच क्रमना॥
अरध उरध के मध्य रिखहु, देखहु सोचि हृदय अपना।
निर्मल झलक तहँहि घर छावहु, मनि-गन मंडित वह वरना॥
हिय हुलसित दरसित द्युति दामिनि, ऊगत उडुगन चंद घना।
धरनी धन्य कर्म कलि तिनको, जिन पाओ सत गुरु शरना॥23॥