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वि‍रासत का भार / विद्याभूषण

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वाद-वि‍वाद-संवाद गोष्‍ठि‍यों में
अपनी संकटग्रस्‍त आस्‍था के लि‍ए
तर्क-वि‍तर्क-सतर्क बहसों की गि‍रफ़्त में
घु‍ट कर
जब लौटता हूँ घर-
अपने अन्‍तरकक्ष में,
मैं संतुष्‍ट आदमी नहीं रह जाता।
कई बेसुरी आवाज़ें
तमाम सवालों का जायका
कसैला कर देती हैं
कि‍ साठ सालों के सफ़र में
लाल आँधी की ग्‍लोबल-रफ़्तार
सि‍यासी वक़्त की दौड़ में
पीछे क्‍यों रह गई ?

कई द्वीपों पर बाग़ी परचम
वक़्ती तौर पर लहराया ज़रूर,
मगर ति‍रंगे देश की धरती
रह गई प्‍यासी परती,

इति‍हास के रास्‍तों पर
मील के दीगर पत्‍थर गड़ते रहे
बारबार-लगातार,
और हमारे साथि‍यों की बैरक में
तकरीरें चलती रहीं हाँफती चाल ।

फि‍लहाल जम्‍हूरी दस्‍तावेज़ों के क़ाति‍ब
पूछ रहे यह बेमुरव्वत सवाल
कि‍ उस सुर्ख़ परचम को काट-छाँट कर
कि‍सने बनाए बीस रूमाल ?

उस सुलगती अंगीठी को जल समाधि
कहाँ-कहाँ मि‍ली ?
कि‍ आगे दि‍खती है अब बंद गली।
वि‍सर्जन की वह जगह कौन-सी है-
हि‍न्‍द महासागर या हुगली ?

मुश्‍कि‍ल में है इंकलाबी इन्‍तज़ार
कि‍ अब कि‍सके नाम दर्ज़ हो
इस अपाहि‍ज वि‍रासत का भार ?