वीरांगना अवंतीबाई / दुर्गेश दीक्षित
(इनकी शौर्य-गाथा पर बाबू वृन्दावनलाल वर्मा ने ‘रामगढ़ की रानी’ उपन्यास लिखा है तथा केंद्रीय सरकार ने इनकी स्मृति में विशेष डाक टिकट जारी किया है।)
धन्न भूम भई मनकेड़ी की, जितै अवतरीं रानी,
जुगन-जुगन नौ जाहर हो गई उनकी अमर कहानी;
बड़े प्रेम सैं चबा चुकी तीं, देस-प्रेम कौ बीरा,
जियत-जियत नौ ई धरनी की, दूर करत रई पीरा।
नगर मण्डला के बीरन में ऐसे भाव भरे ते,
प्रान हाँत पै धर गोरन सैं, अपनें आप लरे ते,
थर-थर प्रान कँपे गोरन के, ई रानी के मारैं,
डार-डार हँतयार भगे ते, सुन-सुन कै ललकारैं।
हल-हल गऔ रानी के मारें, बाडिंगटन कौ आसन,
सोस-सोस रै गए ते दुसमन, अब का करबैं सासन।
ऐसौ परो खदेरौ उनपै, प्रान बचाकैं भागे,
कजन बचे रए रानी जू सैं, भाग सबई के जागे।
सुन-सुन कै दुक गए ते दुसमन, ऊ घुरवा कौ टापैं,
लाल-लाल मों देख जुद्ध में, जिऊ अरियन के काँपैं।
एक हाँत पाछैं रइँ उनसै, झाँसीवारी रानी,
ई धरनी कौ कन-कन कै रओ, उनकी सुजस कहानी।
राज रामगढ़ की रानी की, है काँ किलौ पुरानौ?
अपुन इए अब आजादी की, निउँ कौ पथरा मानौ।
अमर बीरता के साके की, दै रओ किलौ गबाई,
जी के भीतर देस-भक्ति की, जगमग जोत जगाई।
ऐसी अमर बीर रानी खौं, भूले काय कुजानें,
जस की डोर दौर कै भइया, अपनी तरपै तानें।
स्वार्थ भाव के इँदयारे में, नीत-न्याय खौं भूले,
उल्टी-सूदी बातें गड़कै, ऊसई फिर रए फले।
देस-प्रेम की मीठौ अमरत, अपनें मन में घोलो,
बीर अवंतीबाई जू की, एक साथ जय बोलो।
महातीर्थ सी कर्म भूमि के, दरसन करबे जइयौ,
भक्तिभाव सैं चिर समाधि पै, श्रद्धा-सुमन चढ़इयौ।