वीरानी / राकेश खंडेलवाल
आधिपत्य जमाया है कैसा मेरे दिल पर वीरानी ने
नित बीज बोयें हैं, सपनों के पर अंकुर कभी नहीं फूटे
मेरी अँगनाई के बबूल, कीकर भी सारे मुरझाये
बस नागफ़नी के काँटों पर बाकी हैं कुछ धुँधले साये
उतरी ही नहीं चाँदनी भी पल भर रजनी के अंबर से
हूँ घिरा हुआ मैं अंधकार के गहरे महासमन्दर से
किरणों की शुभ्र तूलिका को है खोज रहा सूरज कब से
यदि मिल जाये तो प्राची पर काढ़े कुछ ऊषा के बूटे
मरुथल से चली हवाओं ने कर लिया बसेरा आँगन में
अधरों को शुष्क पपड़ियों का उपहार दिया आ सावन ने
दो कदम न उठकर चली निशा, बस पड़ी रही अलसाई सी
अटकी ही रही एक ही स्वर पर सुधियों की शहानाई भी
मंज़िल-पथ था सन्मुख मेरे, पर मन का ज़िद्दी यायावर
हर बार चला उन राहों पर, जिन पर पद-चिन्ह न थे छूटे
भर कर झोली आशाओं की, अभिलाषा भटकी गली गली
द्वारे द्वारे सम्पर्क की मुरझाई सी इक कली मिली
जीवन की फटी हुई चादर, पैबन्दों से जुड़ सकी नहीं
पर कटी उमंगों की कोयल दो पल को भी उड़ सकी नहीं
सुनते आये थे बरसों में दिन घूरे के भी फिरते हैं
पर ऐसा आज लगा मुझको, ये सभी दिलासे हैं झूठे
अँजुरि में भर कर बैठा हूँ, हो चुके तरल सम्बन्धों को
टुकड़े टुकड़े चुनता हूँ मैं अब टूट चुकी सौगन्धों को
दर्शन की सभी संहितायें, पन्ने पन्ने हो बिखर गईं
धूमिल धूमिल मरीचिकायें, बस द्रष्टि-क्षितिज पर उभर रहीं
सुख की स्मृतियों के पल की, मनुहारें करते हार गये
आये ही नहीं निमिष भर वे, हैं दूर रहे बैठे रूठे