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वीरान रास्ते, सोनार चाँद और एक विदा... / आलोक श्रीवास्तव-२

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कल तुम्हारे साथ चाँद देखा
रात का पूरा सोनार चाँद
चैत्र के आकाश पर टँगा

इसी चाँद को रास्ते भर देखते
थके कदमों से लौट कर
शब्दों में तुम्हारा तसव्वुर किया था
कितनी रातों ...

बादलों के बीच बार-बार छिपता
यह चाँद था
दूर समुद्र की टूटती लहरें
और रोशनियों में झिलमिला उठा
समूचा का समूचा शहर
और भीड़ भरे बस-स्टॉप पर
तुम थीं बगल में

एक मैत्री थी हमारे बीच --
बहुत दुख और पीड़ा के बाद हासिल

रौशनियों के अजाब वाले इस शहर में
जगह बनाता एक पुख़्ता संबंध था
एक खूबसूरती थी
जीवन-कर्म से दीप्त
भावना के सच्चे विस्मय का ओज लिए
समूचे आकाश पर
उदित सोनार चाँद की एकांत आभा में
दिपदिपाता तुम्हारा चेहरा

फिर तुम्हारे घर तक का सफर तुम्हारे साथ
वीरान होते रास्तों पर
परसती रात का गुंजान सौंदर्य
और विदा को उठी
मोड़ पर
दो भरपूर आँखें ...