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वृक्षों की बीथिकाओं से / महेश सन्तोषी

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वृक्षों की वीथिकाओं से होकर
हमेशा हवाएँ ही नहीं आतीं
कभी-कभी चला आता है वसन्त!

जी के तो देखो कुछ क्षण, वनों, उपवनों,
निर्जनों के संग;
तन-मन की किन-किन थाहों
अनन्यताओं जिया जाता है वसन्त!

ओस से धुले, फूलों के रंगों, उभरे फूले-फूले अंगों
भरी-भरी देहों के,
खुले-छिपे संदर्भों
माँसल सत्यताओं में जिया जाता है वसन्त,
अनन्यताओं में जिया जाता है वसन्त!

कोई छूके तो देखे, रोके, बाँहों में समेटे
सिहरती हवाओं के आलिंगनों
स्पर्शों से होके, पास से गुजरा जाता है,
सारा का सारा वसन्त,
अनन्यताओं में जिया जाता है वसन्त!