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वृद्ध होना / यतीन्द्र मिश्र
Kavita Kosh से
छीजता जाता है फूलों से पराग
भीतर का आलोक ढंक लेता सात आसमान
कम होती जाती दुनिया में भरोसे की जगह
उदारता एकाएक आंधी के वेग से चली आती
घर के अंदर रहने
खेल-खेल में टूटते चले गए बचपन के खिलौने से
ज्यादा बड़ी नहीं रहती भूल-गलतियां
कुम्हलाया हुआ दिन हर रोज दरवाजे पर आकर
बताता है अब कुछ होने वाला नहीं है
दुःख यातना और दर्द की कॉपी के पन्ने
कई बार तह खुलने से ढीले और मौसम के रंग
सुग्गों की हरियाली से भी ज़्यादा चटख़ होते जाते हैं
वृद्ध होना
दरअसल ईख का पकना है
बूंद-बूंद बटोरा गया अनुभव
जड़ से कलगी तक भिन जाता जीवन-रस में।