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वृन्त-वृन्त फूल खिले गंध के अभाव में! / बलबीर सिंह 'रंग'
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वृन्त-वृन्त फूल खिले गंध के अभाव में!
गजरे नहीं हैं,
दर्शनीय गुलदस्ते हैं;
ऊपर से मँहगे,
पर भीतर से सस्ते हैं।
भृंग-भृंग गूँजे मकरन्द के अभाव में!
वृन्त-वृन्त फूल खिले गंध के अभाव में!!
घाट-घाट तर्पण है,
अभिनन्दन ग्रन्थों का;
मंदिर की चोरी में,
हाथ है महन्तों का।
अंग-अंग आतुर आनन्द के अभाव में!
वृन्त-वृन्त फूल खिले गंध के अभाव में!!
स्वर के संविधान द्वारा,
बंदी संगीत है;
लय का निर्वाचन है,
प्रलय मनोनीत है।
शब्द-शब्द गीत रचे छन्द के अभाव में!
वृन्त-वृन्त फूल खिले गंध के अभाव में!!