वृन्द के दोहे / भाग ४
नीति के दोहे
गुन-सनेह-जुत होत है, ताही की छबि होत ।
गुन-सनेह के दीप की, जैसे जोति   उदोत ॥31
ऊँचे पद को पाय लघु, होत तुरत ही पात  ।
घन तें गिरि  पर गिरत जल, गिरिहूँ ते ढरि जात ॥32
आए  आदर न करै, पीछे  लेत   मनाय  ।  
घर आए पूजै न अहि, बाँबी पूजन जाय ॥33 
उत्तम विद्या लीजिए, जदपि नीच पै होय । 
पर्यौ अपावन ठौर को, कंचन तजत न कोय ॥34
दुष्ट न छाड़ै दुष्टता, बड़ी   ठौरहूँ   पाय । 
जैसे तजै न स्यामता, विष शिव कण्ठ बसाय ॥35
बड़े-बड़े को बिपति तैं, निहचै लेत उबारि ।
ज्यों हाथी को कीच सों, हाथी लेत निकारि ॥36
दुष्ट   रहै जा ठौर पर, ताको करै  बिगार । 
आगि जहाँ ही राखिये, जारि करैं  तिहिं छार ॥37
ओछे नर के चित्त में, प्रेम  न  पूर्यो  जाय ।
जैसे सागर को सलिल, गागर में न समाय ॥38
जाकौ बुधि-बल होत है, ताहि न रिपु को त्रास ।
घन –बूँदें कह करि सके, सिर पर छतना जास ॥39
सरसुति  के भंडार की, बड़ी अपूरब बात ।
जौं खरचे त्यों-त्यों बढ़ै, बिन खरचै घट जात ॥40
	
	