वृष्टि / प्रभाकर माचवे
वर्षा,
जिसने कर्षक को आकर्षा ।
स्वस्थ, मस्त बून्दों ने आकर,
विपदग्रस्त धरती को स्पर्शा ।
सहसा जलमय हुए झील, रत्नाकर,
नाले, नदियाँ, निर्झर!
यकसाँ जन-जन का मन हर्षा ।
झरर-झरर-झर
ये संघर्षातुर झड़ियाँ, या
झन-झन-झन बजती-सी कड़ियाँ;
व्योम-समर-भू में झूमे जो
मत्त मेघ के महासैन्य को वाताहत करने को उद्यत,
धरती जिसकी लू से झुलसी थी
वह पुनः गुरिल्ला दल-सी —
बही हवा दुर्धर्षा !
ऐसी वर्षा !
हहर-हहर कर —
बाढ़ आ गई क्षुद्र पीन नद में भी,
ढहे कगारे जीर्ण-समाज-व्यवस्था-से, गतिहारे आदर्शों से ।
गेहूँ-सा मटमैला फैला पात्र नदी का ।
दूर-दूर तक इंक़लाब-से बद्दल जिनका पार न दीखा ।
कीच मचा,
औ’
धारा जो कि स्वर्ग से गिरती
धारा आज धरा से मिलती, तभी उसे मिलता छुटकारा ।
गर्म श्वास यों निकले नर्म रसा से —
निःक्षत्रिय करने को मानो आज उठ खड़ी
सरोष जनता ले कर फरसा,
ऐसी वर्षा !