भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वेकेन्सी थी / राज मोहन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तब के खुरचल आत्मा पे धँसल
अब्बे ले गहीर चिन्ह
जीव जर जर रह जाए
मन में मन गुस्साए
मूढ़ी पे कभी सनती
कभी ईंटा कभी ढेला
बहिन के देखे झोंटा हिंचाए
छोटा भाई
दाँत पीस के रह जाए
नौ बरिस के छोटा भाई
नवा नवा स्क्रिफ्त छिनाएगे
नवा नवा पोतलूद
बाप सुने के लात खा
माई बोले बेटा सह ले
आज छुट्टी मिली, बड़के वेकेन्सी
सब कोई मगन में
एक बजे स्कूल निकरी
आज घरे कैसे पहुँचब
छूछू घोरे, शान्ती डाम से
के सम्पू सम्पू
चाहन्टा में
सैबना के रास्ते से
दुइ तीन जगह वेकेन्सी थी
अगारत होइ
हाथ गोर में लगत देर ना
छोंकत महीन पीड़ा
सान ना देना
चाहरी मूढ़ी पे
ग्यारह बरिस के बहिन
नौ बरिस के छोटा भाई
रोज के एही चिन्ता
आज घरे कैसे पहुँचब
उ सब के मुँह और रोज नित के बेजती
यू का कुली, कुली डाँग डाँग, यू लोसो माई
पोनरा के नीचे
कागज के बोट में
इगो पायल कटलिस
तब के खुरचल आत्मा पे धँसल
अब्बे ले गहीर चिन्ह।