वेदना भरे मन में
छन्दों से पीर झरे।
पथराई धरती जब
राह तके सावन की
रोम-रोम कान बने
आहट ले आवन की
प्यासी हो धरती जब
अम्बर से नीर झरे।
अमरित की आस में
मन में नेह गहराये
चातकी की चाह पर
बादल उमड़ आये
ममता भरे उर में
आँचल से क्षीर झरे।
सूखते सरोवर की
आस पूरी हो गई
ऊसर-सी धरती की
गोद हरी हो गई
नदियाँ मचलती हैं
झहर झहर तीर झरे।