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वे कबूतरबाज़ हैं ! / रामकुमार कृषक
Kavita Kosh से
वे कबूतरबाज़ हैं, कब से कबूतर हम;
हम कबूतर हैं, कबूतरबाज़ वे कब से !
छत उनकी झण्डियाँ भी
छतरी उनकी उन्हीं की सीटियाँ
आकाश यों सारा हमारा है —
नज़ारा है
समन्दर है मगर बेतरह खारा है,
वे अखाड़ेबाज़ हैं, कब से अखाड़े हम;
हम अखाड़े हैं, अखाड़ेबाज़ वे कब से !
शौक उनके चतुरता भी
चोंचले उनके उन्हीं की बैठकें
बातें मगर सारी हमारी हैं —
दुधारी हैं
भले जन हैं मगर सारे शिकारी हैं,
वे निशानेबाज़ हैं, कब से निशाने हम;
हम निशाने हैं, निशानेबाज़ वे कब से !