भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वे कबूतरबाज़ हैं ! / रामकुमार कृषक

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वे कबूतरबाज़ हैं, कब से कबूतर हम;
हम कबूतर हैं, कबूतरबाज़ वे कब से !

छत उनकी झण्डियाँ भी
छतरी उनकी उन्हीं की सीटियाँ
आकाश यों सारा हमारा है —
नज़ारा है
समन्दर है मगर बेतरह खारा है,
 
वे अखाड़ेबाज़ हैं, कब से अखाड़े हम;
हम अखाड़े हैं, अखाड़ेबाज़ वे कब से !

शौक उनके चतुरता भी
चोंचले उनके उन्हीं की बैठकें
बातें मगर सारी हमारी हैं —
दुधारी हैं
भले जन हैं मगर सारे शिकारी हैं,
 
वे निशानेबाज़ हैं, कब से निशाने हम;
हम निशाने हैं, निशानेबाज़ वे कब से !