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वे जो / अजित कुमार
Kavita Kosh से
वे जो मर चुके थे
दफ़्नाए ही क्या,
बिसराए तक जा चुके थे
वे जो ’थे’ ही नहीं बिलकुल
अरे, कितने अधिक ’हैं’
देखो, सूखी गर्म रेत पर
चमकती हुई नन्हीं-मुन्नी सीपियाँ ।
कभी थीं,
आज हैं,
और आगे सदा होंगी !