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वे सात दिन / रंजना जायसवाल
Kavita Kosh से
अनजाने शहर में
अपनेपन की चाह में
अनजाने ही
टिका दिया मैंने
तुम्हारे कंधे पर
अपना सिर
उस दिन
वह स्पर्श का जादू था
कि देह-गंध की मादकता
जल उठी भक से
एक आदिम आग
हमारे बीच
तुम और मैं
मैं और तुम
फेरे लगाने लगे
उस आग के
एक-एक कर डालने लगे
वर्षों से संचित हवि
पूरे सात दिन
और तपकर निखर आए
स्वर्ण की तरह
पा ली हमने
कई सात वर्ष साथ बीता कर भी
न पाई जाने वाली
निकटता...
वे सात दिन थे
कि सात फेरे
कि रिश्ता सात जन्मों का
नहीं जानती
जानती हूँ बस यही कि
देह धरती से
आकाश मन की यात्रा
तय की थी हमने
अनजाने ही
अनजाने शहर में
अपनेपन की चाह में