भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वे ही / रेखा चमोली
Kavita Kosh से
वे ही बचाएंगे
इस हरियाली को
पेड़ों नदियों, पहाड़ों को
जिनके लिए
किसी जगह की जनसंख्या
1573 पुरूश 1104 स्त्रियां नहीं
बल्कि
दादा-दादी, चाचा-बुआ मौसी ताई आदि
होती हैं
जो किसी दुर्घटना को पढ़कर
क्या होगा इस दुनियाँ को
कहकर भूल नहीं जाते
बल्कि
उनकी आंखों में
स्थायी उदासी के तौर पर छा जाती हैं
हताततों की तस्वीरें
जो कुछ न कर पाने की बेबसी से
चुप नहीं बैठते
बिफर उठते हैं
कुछ भी गलत होता देख
जो सवालों से कतराते नहीं
ना ही किसी जबाब को अन्तिम मान
इतिहास बनाने की जुगत भिड़ाते हैं
जो नहीं समझते
काम को नौकरी
औरत को पशु
बच्चों को नासमझ
जो अपना घर बनाते समय
सार्वजनिक रास्तों की जगह नहीं घेरते
उन्हीं की खुरदुरी हथेलियां
थाम पाएंगी
इन नदियां, पहाड़ों, झरनों, धूप, मिट्टी को।