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वैदिक ऋचाएँ / योगक्षेम / बृजनाथ श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
भूर्ज पत्रों पर लिखीं
वैदिक ऋचाएँ
पढ़ रहीं फिर से हवाएँ
देववन की
गंध उजली
फिर यहाँ आने लगी है
हाथ में
अमृतकलश ले
भोर छलकाने लगी है
यज्ञ मंत्रों में बँधी
वैदिक ऋचाएँ
फिर लगीं गाने दिशाएँ
लोग उकताये
नगर के
ढूढ़ते संदल पवन फिर
हो रहे फिर
शांति वन में
हैं नदी तट पर हवन फिर
लोग फिर पढ़ने लगे
वैदिक ऋचाएँ
और वे पिछली कथाएँ
भौतिकी दिन
लोभ के अब
आपसी सम्बंध तोड़ें
सार्वभौमिक
बात को भी
तर्क से अपने मरोड़ें
और फिर फिर पावनी
वैदिक ऋचाएँ
रात-दिन घर में सुनाएँ