भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वैदिक ऋचाएँ / योगक्षेम / बृजनाथ श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भूर्ज पत्रों पर लिखीं
वैदिक ऋचाएँ
पढ़ रहीं फिर से हवाएँ

देववन की
गंध उजली
फिर यहाँ आने लगी है
हाथ में
अमृतकलश ले
भोर छलकाने लगी है

यज्ञ मंत्रों में बँधी
वैदिक ऋचाएँ
फिर लगीं गाने दिशाएँ

लोग उकताये
नगर के
ढूढ़ते संदल पवन फिर
हो रहे फिर
शांति वन में
हैं नदी तट पर हवन फिर

लोग फिर पढ़ने लगे
वैदिक ऋचाएँ
और वे पिछली कथाएँ

भौतिकी दिन
लोभ के अब
आपसी सम्बंध तोड़ें
सार्वभौमिक
बात को भी
तर्क से अपने मरोड़ें

और फिर फिर पावनी
वैदिक ऋचाएँ
रात-दिन घर में सुनाएँ